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Verse 11
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
You grieve for those who need not be grieved for, yet speak words of wisdom; the wise do not lament for the living nor the dead.
तुम जिनके लिए शोक नहीं करना चाहिए उनके लिए शोक करते हो और प्रज्ञा की बातें करते हो; ज्ञानी न जीवित के लिए शोक करता है न मृत के लिए।
OpenVerse 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
As the embodied being passes from childhood to youth to old age, so also it passes to another body; the wise are not deluded by this.
जैसे देहधारी में बाल्यावस्था से युवावस्था और फिर वार्धक्य आता है, वैसे ही देह परिवर्तन होता है; धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता।
OpenVerse 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
Sense contacts cause heat and cold, pleasure and pain—they come and go, they are impermanent; endure them, O Bharata.
इन्द्रिय-संयोग शीत‑उष्ण तथा सुख‑दुःख देता है; वे आते‑जाते और अनित्य हैं—हे भारत, धैर्य धरो।
OpenVerse 2.1
संजय उवाच —
तं तथा कृपयाविष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥
Sanjaya: Seeing Arjuna overwhelmed by pity and tears, Madhusudana spoke these words.
संजय: करुणा और आँसुओं से भरे अर्जुन को देखकर मधुसूदन बोले।
OpenVerse 2.11
श्रीभगवानुवाच —
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
You grieve for those not to be grieved for, yet speak wise words; the wise do not lament for the living or the dead.
तुम जिनके लिए शोक नहीं—उन पर शोक करते; पण्डित न जीवितों के लिए, न मृतकों के लिए शोक करते।
OpenVerse 2.12
न त्वेवाहं जातु नासं
न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥
Never was I not, nor you, nor these kings; nor shall we ever cease to be.
न मैं कभी न था, न तुम, न ये राजा; न आगे कभी न रहेंगे।
OpenVerse 2.13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
As the embodied passes through childhood, youth, old age, so to another body; the steady is not deluded.
देही बाल्य‑यौवन‑जरा से जैसे गुजरता—वैसे देहान्तर; धीर मोहित नहीं होता।
OpenVerse 2.14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
Contacts with senses produce heat and cold, pleasure and pain—transient; endure them.
इन्द्रिय‑स्पर्श शीत‑उष्ण, सुख‑दुःख देते—अनित्य हैं; सहन करो।
OpenVerse 2.15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
Whom these do not afflict, who is equal in pain and pleasure—that steady one is fit for immortality.
जिसे ये न विचलित करें, जो सुख‑दुःख में सम—वह अमृत का अधिकारी।
OpenVerse 2.16
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
The unreal has no being; the real never ceases; seers perceive the truth of both.
असत का भाव नहीं, सत का अभाव नहीं—तत्त्वदर्शी ऐसा देखते हैं।
OpenVerse 2.17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
Know That which pervades all as indestructible; none can destroy the imperishable.
जो सर्वत्र व्याप्त है—अविनाशी—उसे जानो; उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता।
OpenVerse 2.18
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरीनः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्यम्… तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
Bodies end; the embodied is eternal, indestructible, immeasurable—therefore fight.
देह अन्तवान; देही नित्य‑अविनाशी—अतः युद्ध करो।
OpenVerse 2.19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
He who thinks ‘I slay’ or ‘I am slain’ knows not; the Self neither kills nor is killed.
‘मैं मारता/मारा जाता’—ऐसा मानने वाला नहीं जानता; आत्मा न हन्ता, न हन्य।
OpenVerse 2.2
श्रीभगवानुवाच —
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥
The Lord: Whence has this dejection come upon you in this crisis—unworthy of the noble, not leading to heaven, bringing disgrace?
भगवान: यह विषाद कहाँ से आया—अनार्यों को शोभा नहीं देता, स्वर्गदायी नहीं, अपकीर्ति है।
OpenVerse 2.20
न जायते म्रियते वा कदाचित्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
The Self is unborn, eternal, ancient; it is not killed when the body is killed.
आत्मा न जन्म लेती न मरती; देह के मारे जाने पर भी नहीं मरती।
OpenVerse 2.22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवीनानि देही ॥
As a man casts off worn garments and puts on new, so the embodied casts off old bodies and takes others.
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्र छोड़ नये पहनता—वैसे देही पुराने शरीर छोड़ और लेता।
OpenVerse 2.23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
Weapons do not cut It, fire burn It, waters wet It, nor wind dry It.
आत्मा को शस्त्र नहीं काटते, अग्नि नहीं जलाती, जल नहीं भिगोता, वायु नहीं सुखाती।
OpenVerse 2.27
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
For the born, death is certain; for the dead, birth is certain; do not grieve for the inevitable.
जो जन्मा है उसे मरना है; जो मरा है उसे जन्म लेना है—अनिवार्य हेतु शोक नहीं।
OpenVerse 2.3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ॥
Yield not to impotence; cast off petty faint‑heartedness and arise!
नपुंसकता मत अपनाओ; हृदय‑दौर्बल्य छोड़, उठो!
OpenVerse 2.31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
Looking at your own dharma, you should not tremble; for a Kshatriya, no good is higher than a righteous war.
स्वधर्म दृष्टि से डरो मत; क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से श्रेष्ठ कुछ नहीं।
OpenVerse 2.33
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
If you will not fight this righteous battle, abandoning duty and honor, you shall incur sin.
यदि यह धर्मयुद्ध न करोगे—स्वधर्म‑कीर्ति छोड़—पाप लगेगा।
OpenVerse 2.37
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं
जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
Slain, you gain heaven; victorious, you enjoy earth—therefore arise resolved to fight.
मारे जाओ तो स्वर्ग; जीतो तो पृथ्वी—अतः निश्चयपूर्वक उठो।
OpenVerse 2.38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
Treat pleasure‑pain, gain‑loss, victory‑defeat alike, and engage in battle; thus you will not incur sin.
सुख‑दुःख, लाभ‑हानि, जय‑अपजय सम कर युद्ध करो—पाप नहीं लगेगा।
OpenVerse 2.39
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
Thus was wisdom (Sankhya); now hear of Yoga—armed with this, you shall cast off karma‑bondage.
अब योग की बुद्धि सुनो—इससे कर्म‑बन्ध छूटेगा।
OpenVerse 2.4
अर्जुन उवाच —
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥
Arjuna: How shall I fight Bhishma and Drona—worthy of worship—with arrows?
अर्जुन: भीष्म‑द्रोण जैसे पूज्यजन से कैसे युद्ध करूँ?
OpenVerse 2.40
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
In this (Yoga), no effort is lost, no reverse occurs; even a little protects from great fear.
इस योग में प्रयत्न नष्ट नहीं; विपरीत फल नहीं; थोड़ा भी बड़ा भय हरता है।
OpenVerse 2.46
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
You have a right to action alone, never to its fruits; be not the cause of fruits; let not your attachment be to inaction.
तुम्हारा अधिकार कर्म पर है, फल पर नहीं; फल‑हेतु न बनो, न अकर्म में आसक्त रहो।
OpenVerse 2.48
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
Established in Yoga, perform action abandoning attachment, being even in success and failure; equanimity is Yoga.
योगस्थ होकर कर्म करो—संग त्यागकर—सिद्धि‑असिद्धि में सम; समत्व ही योग है।
OpenVerse 2.49
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.5
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हतार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रक्तरुधिरप्रदिग्धान् ॥
Better to live by alms than to slay great elders; their death would stain our joys with blood.
महान गुरुजनों को मारे बिना भिक्षा अच्छी; उनका वध भोगों को रक्त से रंजित कर देगा।
OpenVerse 2.50
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
Endowed with wisdom one abandons both good and evil here; therefore engage in Yoga. Yoga is skill in action.
बुद्धियुक्त मनुष्य शुभ‑अशुभ दोनों छोड़ देता है; अतः योग में प्रवृत्त हो। योग—कर्म में कौशल।
OpenVerse 2.51
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.52
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.53
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.54
अर्जुन उवाच —
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किम्प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ॥
Arjuna: What is the description of the steadfast in wisdom, the one established in samadhi? How does he speak, sit, walk?
अर्जुन: स्थितप्रज्ञ की भाषा क्या? वह कैसे बोलता, बैठता, चलता?
OpenVerse 2.55
श्रीभगवानुवाच —
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
The Lord: When one gives up all desires born of the mind and is satisfied in the Self by the Self—he is called steadfast in wisdom.
जब मनोद्गत सभी इच्छाएँ छोड़ी जाएँ और आत्मा में ही संतोष हो—वह स्थितप्रज्ञ।
OpenVerse 2.56
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
Unagitated in sorrow, free from hankering in pleasure; rid of attachment, fear and anger—such a sage is steadfast.
दुःख में अचल, सुख में निरासक्त; राग‑भय‑क्रोध रहित—ऐसा मुनि स्थितधी।
OpenVerse 2.57
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
He who is attached to none, neither rejoices nor hates on getting good or evil—his wisdom is established.
जो सर्वत्र अनभिस्नेह—शुभ‑अशुभ पाकर न आनन्दित न द्वेषी—उसकी प्रज्ञा स्थित।
OpenVerse 2.58
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
When he withdraws the senses from their objects like a tortoise its limbs—his wisdom is established.
जब कच्छप की भाँति इन्द्रियाँ विषयों से समेटी जाएँ—प्रज्ञा स्थित।
OpenVerse 2.59
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
Objects fall away from the abstinent, but the taste remains; even that ceases upon seeing the Supreme.
विषय तो छूटें, रस बना रहे; परम का दर्शन होने पर वही रस भी छूटे।
OpenVerse 2.6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥
We do not know which is better—to conquer or be conquered; those for whose sake we desire life stand before us.
न जीत भली, न हार—किसके लिए जीना चाहते थे वही सामने हैं।
OpenVerse 2.60
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
Even for the striving wise, turbulent senses carry away the mind by force.
प्रयत्नशील विवेकी का भी मन इन्द्रियाँ उड़ा ले जाती हैं।
OpenVerse 2.61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
Having restrained them all, sit integrated, devoted to Me; whose senses are under control—his wisdom stands firm.
इन्द्रियों को संयम कर, मुझमें स्थित हो—जिसकी इन्द्रियाँ वश में—उसकी प्रज्ञा स्थित।
OpenVerse 2.62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सంజायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
Dwelling on objects, attachment arises; from attachment, desire; from desire, anger.
विषयों का ध्यान—संग; संग से काम; काम से क्रोध।
OpenVerse 2.63
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
From anger comes delusion, from delusion loss of memory; from loss of memory, destruction of intelligence; from destruction of intelligence, ruin.
क्रोध से मोह, मोह से स्मृति‑भ्रंश, स्मृति‑भ्रंश से बुद्धि‑नाश, बुद्धि‑नाश से विनाश।
OpenVerse 2.64
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
Moving among objects with senses under control, free from attraction and repulsion—one attains serenity.
राग‑द्वेष से मुक्त, वश में इन्द्रियों से विषयों में विचर—प्रसाद मिलता है।
OpenVerse 2.65
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
In serenity arises the end of all sorrows; in the tranquil mind, intelligence quickly becomes steady.
प्रसाद से सब दुःखों का ह्रास; प्रसन्न चित्त में बुद्धि शीघ्र स्थिर।
OpenVerse 2.66
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥
For the unintegrated there is no wisdom, nor meditation; without meditation, no peace; where is happiness without peace?
अयुक्त के लिए न बुद्धि, न भावना; भावना बिना शान्ति नहीं; शान्तिहीन सुख कहाँ?
OpenVerse 2.67
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.68
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.69
उपसंहारसूक्तिः — साधना समत्वस्य आधारः ।
Summary: Practice is anchored in equanimity and clear action.
सार: साधना का आधार—समत्व और स्पष्ट कर्म।
OpenVerse 2.7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
Overpowered by miserly weakness, confused about dharma, I ask You: instruct me; I am Your disciple, surrendered to You.
कृपण‑दोष से ग्रस्त, धर्म‑मोहित—मैं शिष्य होकर शरण आया; कृपया उपदेश दें।
OpenVerse 2.70
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति… ॥
As waters enter the ocean, full and unmoved, so do all desires enter the one who attains peace—not he who longs for desires.
जैसे नदियाँ भरे‑अचल सागर में मिलती हैं—वैसे कामनाएँ उसमें, जो शान्ति प्राप्त करता—न कि जो इच्छाओं के पीछे भागे।
OpenVerse 2.71
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
Abandoning all desires, moving without hankering, free from ‘mine’ and ego—he attains peace.
सभी इच्छाएँ छोड़, निरासक्ति से विचर, निर्मम‑निर्हंकार—वह शान्ति पाता है।
OpenVerse 2.72
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
This is the Brahmic state; attaining it, one is not deluded; abiding in it even at death, he reaches Brahman‑nirvana.
यह ब्राह्मी स्थिति है; इसे पाकर मोहित नहीं होता; अन्त समय भी इसमें स्थित—ब्रह्मनिर्वाण पाता है।
OpenVerse 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
You have a right to action alone, never to its fruits; do not be motivated by results, nor be attached to inaction.
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं; फल की प्रेरणा से कर्म मत करो, न ही अकर्मण्यता से आसक्त रहो।
OpenVerse 50
योगः कर्मसु कौशलम् ।
Yoga is excellence (skill) in action.
योग कर्म की कुशलता है।
OpenVerse 55
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
When a man abandons all desires of the mind and is satisfied in the Self alone, he is called sthitaprajna (one of steady wisdom).
जब मन में उठने वाली सारी इच्छाएँ छोड़ दी जाती हैं और वह आत्मा में ही तृप्त रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
OpenVerse 56
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । भीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
He whose mind is undisturbed in sorrow, free from craving in joy, and who is free from attachment, fear and anger—is called a sage of steady mind.
जो दुःख में विचलित नहीं होता, सुख में स्पृहा नहीं रखता तथा राग‑भय‑क्रोध से रहित है—वह स्थितधि मुनी कहलाता है।
OpenVerse 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
My nature is overpowered by weakness, my understanding is confused regarding dharma; I ask You—tell me what is certainly good for me. I am Your disciple; instruct me, for I take refuge in You.
मेरा स्वभाव दुर्बलता से दब गया है, धर्म के विषय में मेरा चित्त भ्रमित है; कृपया जो मेरे लिए कल्याणकारी हो वह निश्चित रूप से बताइए। मैं आपका शिष्य हूँ—आपकी शरण में हूँ।
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