Shlokas
Verse 1
श्रीभगवानुवाच — इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
The Blessed Lord said: I taught this imperishable yoga to Vivasvan (the sun-deity) in ancient times.
भगवान बोले: मैंने यह अविनाशी योग प्राचीन काल में विवस्वान (सूर्यदेव) को कहा।
OpenVerse 10
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥
Freed from attachment, fear, and anger; absorbed in Me; purified by the austerity of knowledge—many have attained My being.
राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें स्थित होकर, ज्ञान-तप से पवित्र होकर अनेक मुझमें स्थित हुए हैं।
OpenVerse 11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
As they approach Me, so do I respond; O Partha, human beings follow My path in every way.
जैसे लोग मेरी शरण आते हैं, मैं वैसे ही प्रत्युत्तर देता हूँ; हे पार्थ, मनुष्य हर प्रकार से मेरे पथ का अनुसरण करते हैं।
OpenVerse 12
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
Those who desire success in works worship lesser powers; such success comes quickly in the human world.
जो लोग कर्मों की सिद्धि चाहते हैं वे देवताओं की उपासना करते हैं; मनुष्य-लोक में कर्मजा सिद्धि शीघ्र मिलती है।
OpenVerse 13
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
The fourfold order was created by Me according to qualities (gunas) and actions (karma); though the creator, know Me as the non-doer, immutable.
चार वर्णों की व्यवस्था मैंने गुण और कर्म के अनुसार रची; फिर भी मैं कर्ता होते हुए भी अकर्ता, अविनाशी हूँ।
OpenVerse 14
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
Actions do not taint Me, nor do I crave their fruits. One who truly knows this is not bound by actions.
कर्म मुझे नहीं लिप्त करते और न ही मुझे फल की स्पृहा है। जो इस रहस्य को जानता है, कर्मों से बँधता नहीं।
OpenVerse 2
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।
Vivasvan taught it to Manu; Manu taught it to Ikshvaku—thus the tradition continued.
विवस्वान ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को यह योग सिखाया—इस प्रकार परम्परा चलती रही।
OpenVerse 3
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
That very ancient yoga I am teaching you today, Arjuna.
वही प्राचीन योग आज मैं तुम्हें बता रहा हूँ, अर्जुन।
OpenVerse 4
अर्जुन उवाच — अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥
Arjuna said: Your birth appears recent while Vivasvan is ancient—how am I to understand that You taught him in the beginning?
अर्जुन बोले: आपका जन्म तो हाल का दिखाई देता है और विवस्वान प्राचीन; फिर आपने आदि काल में उन्हें यह योग कैसे सिखाया?
OpenVerse 4.1
श्रीभगवानुवाच —
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
The Lord: I taught this imperishable Yoga to the sun‑god (Vivasvan).
भगवान: यह अव्यय योग मैंने विवस्वान को कहा।
OpenVerse 4.10
कर्मणा कर्म च ये जानन्ति — तत्त्ववित्तु न लिप्यते ।
He who knows My divine birth and action is not bound and comes to Me.
जो मेरे दिव्य जन्म‑कर्म को जानता—बंधता नहीं—मुझमें आता है।
OpenVerse 4.11
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥
Many, freed from attachment, fear, anger—purified by knowledge‑austerity—have reached My being.
राग‑भय‑क्रोध से मुक्त, ज्ञान‑तप से शुद्ध—अनेकों ने ‘मद्भाव’ पाया।
OpenVerse 4.12
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
As people approach Me, so do I receive them.
जैसे जो मुझे शरण आते—वैसे ही मैं उन्हें ग्रहण करता।
OpenVerse 4.13
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
The fourfold order was created by Me according to guna and karma.
गुण‑कर्मानुसार चातुर्वर्ण्य की रचना मेरी।
OpenVerse 4.14
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
Actions do not taint Me; I have no craving for their fruits.
कर्म मुझे नहीं लिप्त करते; फल‑स्पृहा नहीं।
OpenVerse 4.15
एवं ज्ञात्वा कृतं पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
Knowing thus, the seekers of old acted; therefore you too should act.
पूर्व मुमुक्षुओं ने ऐसे जानकर कर्म किया; तुम भी करो।
OpenVerse 4.16
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
Even the wise are confounded about action and inaction; I will teach you.
कर्म‑अकर्म में पण्डित भी मोहित; अब मैं सिखाता हूँ।
OpenVerse 4.17
कर्मो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
One must understand action, wrong action, and inaction—the course of action is profound.
कर्म, विकर्म, अकर्म—तीनों जानो; कर्मगति गहन है।
OpenVerse 4.18
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
He who sees inaction in action and action in inaction is wise and integrated.
जो कर्म में अकर्म, अकर्म में कर्म देखे—वह बुद्धिमान, युक्त।
OpenVerse 4.19
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः ।
Whose undertakings are free from desire and fancy—his actions are burnt (do not bind).
जिसके आरम्भ काम‑संकल्प रहित—उसके कर्म दग्ध, बाँधते नहीं।
OpenVerse 4.2
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।
Vivasvan taught Manu; Manu taught Ikshvaku—lineage of transmission.
विवस्वान से मनु, मनु से इक्ष्वाकु—परम्परा।
OpenVerse 4.20
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
Having dropped clinging to fruits, ever‑content, independent—he acts yet is unbound.
फलासक्ति छोड़े, नित्या‑तृप्त, निराश्रित—कर्म करता, बन्धन नहीं।
OpenVerse 4.21
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
Offering is Brahman; oblation Brahman; by Brahman offered into Brahman; he who sees Brahman in action reaches Brahman.
अर्पण, हवि, अग्नि—सब ब्रह्म; ब्रह्म‑दृष्टि से कर्म—ब्रह्म‑प्राप्ति।
OpenVerse 4.22
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
The wise, united in understanding, abandon the fruit born of action and attain peace.
बुद्धियुक्त मनीषी कर्मज फल त्यागकर शान्ति पाते।
OpenVerse 4.23
श्रेयो द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
The sacrifice of knowledge is superior to material sacrifice.
द्रव्य‑यज्ञ से ज्ञान‑यज्ञ श्रेष्ठ।
OpenVerse 4.24
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।
All action culminates in knowledge.
समस्त कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.25
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
Know that by prostration, inquiry, and service; the seers will teach you.
प्रणिपात, परिप्रश्न, सेवा से जानो; तत्त्वदर्शी सिखाएँगे।
OpenVerse 4.26
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
Knowing this, you shall not fall into delusion again; by it you will see all beings in the Self.
इसे जानकर फिर मोह न होगा; सब भूतों को आत्मा में देखोगे।
OpenVerse 4.27
अपि चेिदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
Even if you are the worst sinner, you shall cross all evil by the raft of knowledge.
अत्यन्त पापी भी ज्ञान‑नौका से पार होगा।
OpenVerse 4.28
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
As fire reduces fuel to ash, the fire of knowledge burns all actions.
जिस तरह अग्नि ईंधन जला दे—ज्ञान‑अग्नि कर्म‑बंधन भस्म कर दे।
OpenVerse 4.29
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
Nothing is so purifying as knowledge.
ज्ञान जैसा पवित्रक अन्य नहीं।
OpenVerse 4.3
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
Thus received by royal sages; later it waned.
राजर्षियों ने पाया; फिर क्षीण हुआ।
OpenVerse 4.30
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
The faithful, self‑controlled, devoted attains knowledge.
श्रद्धावान, संयमी, तत्पर—ज्ञान पाता है।
OpenVerse 4.31
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
The ignorant, faithless, doubting self perishes; doubt destroys.
अज्ञ, अश्रद्द, संशयी नष्ट होता; संशय विनाशक।
OpenVerse 4.32
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥
He who has renounced actions in Yoga, whose doubts are cut by knowledge, who is self‑mastered—actions do not bind him.
योग में कर्म समर्पित, ज्ञान से संशय कटा, आत्मवंत—उसके कर्म नहीं बाँधते।
OpenVerse 4.33
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
Therefore, cut this doubt born of ignorance in your heart by the sword of knowledge; stand in Yoga and arise.
अज्ञानजन्य हृदयस्थ संशय को ज्ञान‑खड्ग से काटो; योग में स्थित होकर उठो।
OpenVerse 4.34
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.35
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.36
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.37
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.38
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.39
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.4
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
Today I teach you the same ancient Yoga because you are My devotee and friend.
आज वही पुरातन योग तुम्हें कहता हूँ—क्योंकि तुम भक्त और सखा हो।
OpenVerse 4.40
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.41
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.42
उपसंहारः — ज्ञानयज्ञः कर्मशुद्धये, कर्मयोगः ज्ञानपर्यवसानाय ।
Summary: Knowledge‑sacrifice purifies action; action matures into knowledge.
सार: ज्ञान‑यज्ञ से कर्म शुद्ध; कर्म का परिपाक—ज्ञान।
OpenVerse 4.5
अर्जुन उवाच —
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
Arjuna: You are recent; the sun is ancient—how did You teach him?
अर्जुन: आपका जन्म हाल का; विवस्वान प्राचीन—तब आपने कैसे सिखाया?
OpenVerse 4.6
श्रीभगवानुवाच —
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ॥
Many births have passed for you and Me; I know them all—you do not.
तेरे और मेरे अनेक जन्म हुए; मैं जानता हूँ—तुम नहीं।
OpenVerse 4.7
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
Though unborn and imperishable, Lord of beings, I manifest by My own Maya.
अज, अव्यय, ईश्वर होकर भी—अपनी माया से प्रकट होता हूँ।
OpenVerse 4.8
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
When dharma declines and adharma rises, I manifest Myself.
धर्म‑ग्लानि और अधर्म‑उत्थान पर मैं प्रकट होता हूँ।
OpenVerse 4.9
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
To protect the good, destroy evil, and establish dharma—I come age after age.
साधु‑रक्षा, दुष्ट‑विनाश, धर्म‑स्थापना हेतु—युगे‑युगे आता हूँ।
OpenVerse 5
श्रीभगवानुवाच — बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
The Lord said: Many births have passed for Me and for you; I know them all, O Arjuna, but you do not.
श्रीभगवान बोले: हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म बीत चुके हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, पर तुम नहीं जानते।
OpenVerse 6
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
Though unborn and imperishable, the Lord of beings, I manifest by My own maya, establishing My nature.
मैं अजन्मा, अविनाशी और भूतों का ईश्वर होते हुए भी, अपनी प्रकृति का अधिष्ठान कर अपनी माया से प्रकट होता हूँ।
OpenVerse 7
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽअत्मानं सृजाम्यहम् ॥
Whenever dharma declines and adharma rises, O Bharata, then I manifest Myself.
हे भारत, जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
OpenVerse 8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
To protect the noble, to restrain/destroy the harmful, and to establish dharma—I manifest in every age.
साधुओं की रक्षा, दुष्कृतियों का दमन और धर्म-संस्थापन के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।
OpenVerse 9
जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
He who truly knows the divine nature of My birth and deeds is not reborn after giving up the body; he attains Me, O Arjuna.
जो मेरी दिव्य जन्म-कथा और कर्म के तत्त्व को जानता है, देह त्यागने के उपरांत पुनर्जन्म नहीं लेता—मुझे ही प्राप्त होता है।
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